लोकसभा चुनाव 2019: प्याज़ 50 पैसे किलो, पर नहीं मिल रहे ख़रीदार- ग्राउंड रिपोर्ट
प्याज़ ने कई बार कईयों को रुलाया है. कभी राजनीतिक दल तो कभी किसान इसकी झांस से बच नहीं पाए. यहां तक कि एक बार प्याज़ की आसमान छूती क़ीमतों की वजह से तब की मौजूदा सरकार के हाथ से दिल्ली की सत्ता ही चली गयी थी.
जहां जहां प्याज़ उगाये जाते हैं वहां पर किसानों के लिए कोई न कोई समस्या आँखें तरेर रही होती है. मगर जहां एक ओर प्याज़ उगाने वाले किसानों के लिए इसकी खेती जुए के बराबर है, इसके व्यापार से जुड़े लोगों के मुनाफ़े में कभी भी कमी नहीं आई.
मध्य प्रदेश के मंदसौर के इलाके में या यूं कहा जाए कि राज्य के मालवा के इलाके में लहसुन और प्याज़ ही मुख्य तौर पर उगाए जाते हैं.
अगर आप महानगरों में रहते हैं या बड़े शहरों में, तो अंदाज़ा लगाइए कि आप प्याज़ किस दर पर ख़रीद रहे हैं?
ज़ाहिर सी बात है कि इसकी क़ीमत 12 रुपये प्रति किलो से लेकर 50 रुपये प्रति किलो तक है. रांची के प्रशांत बोरा बताते हैं कि उन्होंने बुधवार को प्याज़ 50 रुपये प्रति किलो की दर से ख़रीदा है.
अब ज़रा दिल थाम लीजिये क्योंकि मंदसौर में प्याज़ 50 पैसे प्रति किलो के हिसाब से मिल रही है मगर इसका कोई ख़रीदार भी नहीं है.
कृषि मंडी से लेकर मंदसौर के खेतों तक प्याज़ का अम्बार लगा हुआ है लेकिन इसे कोई ख़रीद नहीं रहा है. जिन किसानों ने इसकी अच्छी पैदावार से बढ़िया कमाई की उम्मीद लगाई थी, वो अब दिवालिया होने के कगार पर हैं.
कुछ किसानों ने अपने उगाए प्याज़ मंदसौर की सरकारी कृषि मंडी में भी पहुंचाए. मगर दाम नहीं मिलने की वजह से वो अपनी फ़सल वहीं डाल कर चले गए.
सरकारी मंडी के एक अधिकारी का कहना है कि इस बार प्याज़ के ख़रीदार ही नहीं हैं. वे कहते हैं कि किसान नीलामी के लिए अपनी फ़सल लेकर तो आ रहे हैं. मगर जब व्यापारी उन्हें नहीं ले रहे तो फिर वो मंडी में ही अपनी फसल को छोड़कर चले जा रहे हैं.
यहीं पर मेरी मुलाक़ात खुशाल सिंह से हुई जो पिछले दो दिनों से सरकारी मंडी में अपनी फ़सल के साथ जमे हुए हैं.
उन्होंने नीलामी की पर्ची भी कटवा ली मगर उनकी फ़सल को ख़रीदने के लिए कोई नहीं आया.
बीबीसी से वो कहते हैं, "मुझे अपनी प्याज़ की फ़सल मंडी तक लाने में 60 रुपये प्रति क्विंटल का किराया देना पड़ा. अब पचास रुपये प्रति क्विंटल यानी 50 पैसे प्रति किलो भी ख़रीदने वाला कोई नहीं है. वापस लेकर नहीं जा सकता क्योंकि लाने में ही इतना पैसा लग गया है. अब एक दो दिन और देखूंगा. नहीं तो प्याज़ यहीं छोड़कर चला जाऊंगा."
खुशाल सिंह को उम्मीद नहीं थी कि जिस फ़सल के 'बम्पर क्रॉप' होने की वो उम्मीद लगाए बैठे थे, उसके भाव ही नहीं मिलेंगे. मंडी आते ही उन्हें जो झटका लगा उसका असर उनकी सेहत पर भी पड़ा और उनका ब्लड प्रेशर इतना बढ़ गया कि उन्हें इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती कराया गया.
मंदसौर में चारों तरफ प्याज़ की फ़सल अब सड़ने लगी है. मंडी से लेकर खेतों तक. चूँकि ख़रीदार नहीं हैं और मंडी तक ले जाने का भाड़ा भी काफी है इसलिए इलाके में बड़ी संख्या में किसानों ने अपनी फ़सलों को खेतों में ही छोड़ दिया है.
बुज़ुर्ग किसान कँवर लाल ने पांच एकड़ में फसल बोई थी. प्याज़ की अच्छी पैदावार हुई मगर जब उन्हें पता चला कि बाज़ार में किसानों को प्याज़ के भाव ही नहीं मिल रहे हैं तो उन्होंने फ़सल को अपने खेतों में ही रहने दिया.
वो कहते हैं कि मंडी तक ले जाने में जितने पैसे खर्च होंगे उससे उन्हें और भी ज़्यादा घाटा होगा.
दीगांव माली के पूर्व सरपंच हरी वल्लभ शर्मा कहते हैं कि पिछले साल किसानों को लहसुन की खेती ने रुलाया था, इस बार बारी प्याज़ की है.
राम निवास भी प्याज़ की खेती से ही जुड़े रहे. वो बताते हैं कि खेतों में में हर रोज़ 150 रुपये की दर से उन्होंने मजदूर भी रखे. इसके अलावा खाद और दूसरी चीज़ों पर भी काफी खर्च हुआ. मगर फ़सल पड़ी की पड़ी रह गयी.
मंदसौर के ही एक गाँव के किसान भेरू लाल के अनुसार, प्याज़ की फ़सल को पाले से भी नुक़सान हुआ है. इसी वजह से किसान इतने परेशान हैं. वो कहते हैं कि राज्य सरकार प्याज़ का कोई न्यूनतम समर्थन मूल्य किसानों को नहीं देती है. इस वजह से प्याज़ की खेती जुआ खेलने जैसी ही है.
उनका कहना था, "चाहे केंद्र की सरकार हो या फिर राज्य की, किसानों की बात सोचने वाला कोई नहीं है. चुनाव में भी लोग किसानों की बात नहीं कर रहे हैं. इस बार मंदसौर और मालवा के इलाके में प्याज़ की खेती में हुआ नुकसान ही सबसे बड़ा मुद्दा है."
"मगर कोई इसकी बात ही नहीं कर रहा. कमलनाथ के नेतृत्व वाली कांग्रेस की सरकार भी उन किसानों के बारे में नहीं सोच रही है जिनकी फ़सलों को पाला पड़ने की वजह से काफी नुक़सान हुआ."
मंदसौर शहर में मौजूद व्यापारियों से जब मैंने पूछा कि आखिर किसानों को प्याज़ की खेती में इतना घाटा क्यों हुआ तो वो कहते हैं कि सबकुछ परिस्थितियों पर ही निर्भर है.
यहीं के व्यवसायी कांतिलाल जैन कहते हैं कि "लाल प्याज़ में कभी कभी भाव इतना आता है कि किसानों को इसकी बड़ी मोटी रक़म मिलती है."
वो कहते हैं, "कुछ किसान तो एक बीघा ज़मीन में 60 क्विंटल तक प्याज़ बोते हैं. अगर 60 क्विंटल प्याज़ पैदा हुई और वो सौ या दो सौ रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से बिकी तो आप अंदाज़ा लगाइए कि किसानों को कितना लाभ मिलता है."
जैन भी प्याज़ की खेती को जुए की तरह ही मानते हैं. अगर अच्छे दाम आ गए तो किसान मालामाल. नहीं आये तो फिर लुटना तय है.
जहां जहां प्याज़ उगाये जाते हैं वहां पर किसानों के लिए कोई न कोई समस्या आँखें तरेर रही होती है. मगर जहां एक ओर प्याज़ उगाने वाले किसानों के लिए इसकी खेती जुए के बराबर है, इसके व्यापार से जुड़े लोगों के मुनाफ़े में कभी भी कमी नहीं आई.
मध्य प्रदेश के मंदसौर के इलाके में या यूं कहा जाए कि राज्य के मालवा के इलाके में लहसुन और प्याज़ ही मुख्य तौर पर उगाए जाते हैं.
अगर आप महानगरों में रहते हैं या बड़े शहरों में, तो अंदाज़ा लगाइए कि आप प्याज़ किस दर पर ख़रीद रहे हैं?
ज़ाहिर सी बात है कि इसकी क़ीमत 12 रुपये प्रति किलो से लेकर 50 रुपये प्रति किलो तक है. रांची के प्रशांत बोरा बताते हैं कि उन्होंने बुधवार को प्याज़ 50 रुपये प्रति किलो की दर से ख़रीदा है.
अब ज़रा दिल थाम लीजिये क्योंकि मंदसौर में प्याज़ 50 पैसे प्रति किलो के हिसाब से मिल रही है मगर इसका कोई ख़रीदार भी नहीं है.
कृषि मंडी से लेकर मंदसौर के खेतों तक प्याज़ का अम्बार लगा हुआ है लेकिन इसे कोई ख़रीद नहीं रहा है. जिन किसानों ने इसकी अच्छी पैदावार से बढ़िया कमाई की उम्मीद लगाई थी, वो अब दिवालिया होने के कगार पर हैं.
कुछ किसानों ने अपने उगाए प्याज़ मंदसौर की सरकारी कृषि मंडी में भी पहुंचाए. मगर दाम नहीं मिलने की वजह से वो अपनी फ़सल वहीं डाल कर चले गए.
सरकारी मंडी के एक अधिकारी का कहना है कि इस बार प्याज़ के ख़रीदार ही नहीं हैं. वे कहते हैं कि किसान नीलामी के लिए अपनी फ़सल लेकर तो आ रहे हैं. मगर जब व्यापारी उन्हें नहीं ले रहे तो फिर वो मंडी में ही अपनी फसल को छोड़कर चले जा रहे हैं.
यहीं पर मेरी मुलाक़ात खुशाल सिंह से हुई जो पिछले दो दिनों से सरकारी मंडी में अपनी फ़सल के साथ जमे हुए हैं.
उन्होंने नीलामी की पर्ची भी कटवा ली मगर उनकी फ़सल को ख़रीदने के लिए कोई नहीं आया.
बीबीसी से वो कहते हैं, "मुझे अपनी प्याज़ की फ़सल मंडी तक लाने में 60 रुपये प्रति क्विंटल का किराया देना पड़ा. अब पचास रुपये प्रति क्विंटल यानी 50 पैसे प्रति किलो भी ख़रीदने वाला कोई नहीं है. वापस लेकर नहीं जा सकता क्योंकि लाने में ही इतना पैसा लग गया है. अब एक दो दिन और देखूंगा. नहीं तो प्याज़ यहीं छोड़कर चला जाऊंगा."
खुशाल सिंह को उम्मीद नहीं थी कि जिस फ़सल के 'बम्पर क्रॉप' होने की वो उम्मीद लगाए बैठे थे, उसके भाव ही नहीं मिलेंगे. मंडी आते ही उन्हें जो झटका लगा उसका असर उनकी सेहत पर भी पड़ा और उनका ब्लड प्रेशर इतना बढ़ गया कि उन्हें इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती कराया गया.
मंदसौर में चारों तरफ प्याज़ की फ़सल अब सड़ने लगी है. मंडी से लेकर खेतों तक. चूँकि ख़रीदार नहीं हैं और मंडी तक ले जाने का भाड़ा भी काफी है इसलिए इलाके में बड़ी संख्या में किसानों ने अपनी फ़सलों को खेतों में ही छोड़ दिया है.
बुज़ुर्ग किसान कँवर लाल ने पांच एकड़ में फसल बोई थी. प्याज़ की अच्छी पैदावार हुई मगर जब उन्हें पता चला कि बाज़ार में किसानों को प्याज़ के भाव ही नहीं मिल रहे हैं तो उन्होंने फ़सल को अपने खेतों में ही रहने दिया.
वो कहते हैं कि मंडी तक ले जाने में जितने पैसे खर्च होंगे उससे उन्हें और भी ज़्यादा घाटा होगा.
दीगांव माली के पूर्व सरपंच हरी वल्लभ शर्मा कहते हैं कि पिछले साल किसानों को लहसुन की खेती ने रुलाया था, इस बार बारी प्याज़ की है.
राम निवास भी प्याज़ की खेती से ही जुड़े रहे. वो बताते हैं कि खेतों में में हर रोज़ 150 रुपये की दर से उन्होंने मजदूर भी रखे. इसके अलावा खाद और दूसरी चीज़ों पर भी काफी खर्च हुआ. मगर फ़सल पड़ी की पड़ी रह गयी.
मंदसौर के ही एक गाँव के किसान भेरू लाल के अनुसार, प्याज़ की फ़सल को पाले से भी नुक़सान हुआ है. इसी वजह से किसान इतने परेशान हैं. वो कहते हैं कि राज्य सरकार प्याज़ का कोई न्यूनतम समर्थन मूल्य किसानों को नहीं देती है. इस वजह से प्याज़ की खेती जुआ खेलने जैसी ही है.
उनका कहना था, "चाहे केंद्र की सरकार हो या फिर राज्य की, किसानों की बात सोचने वाला कोई नहीं है. चुनाव में भी लोग किसानों की बात नहीं कर रहे हैं. इस बार मंदसौर और मालवा के इलाके में प्याज़ की खेती में हुआ नुकसान ही सबसे बड़ा मुद्दा है."
"मगर कोई इसकी बात ही नहीं कर रहा. कमलनाथ के नेतृत्व वाली कांग्रेस की सरकार भी उन किसानों के बारे में नहीं सोच रही है जिनकी फ़सलों को पाला पड़ने की वजह से काफी नुक़सान हुआ."
मंदसौर शहर में मौजूद व्यापारियों से जब मैंने पूछा कि आखिर किसानों को प्याज़ की खेती में इतना घाटा क्यों हुआ तो वो कहते हैं कि सबकुछ परिस्थितियों पर ही निर्भर है.
यहीं के व्यवसायी कांतिलाल जैन कहते हैं कि "लाल प्याज़ में कभी कभी भाव इतना आता है कि किसानों को इसकी बड़ी मोटी रक़म मिलती है."
वो कहते हैं, "कुछ किसान तो एक बीघा ज़मीन में 60 क्विंटल तक प्याज़ बोते हैं. अगर 60 क्विंटल प्याज़ पैदा हुई और वो सौ या दो सौ रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से बिकी तो आप अंदाज़ा लगाइए कि किसानों को कितना लाभ मिलता है."
जैन भी प्याज़ की खेती को जुए की तरह ही मानते हैं. अगर अच्छे दाम आ गए तो किसान मालामाल. नहीं आये तो फिर लुटना तय है.
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